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The History & Significance of Lord Jagannath Puri Rath Yatra

Jagannath Puri Rath Yatra is a grand festival that attracts millions of devotees every year. the significance of this festival and the story behind it

भगवान जगन्नाथ के याद में निकाली जाने वाली 'जगन्नाथ रथ यात्रा' का लोग बेसब्री से इंतजार करते हैं। आपको बता दें कि जगन्नाथ मंदिर हिन्दुओं के चार धाम में से एक है। यह वैष्णव सम्प्रदाय का मंदिर है, जो भगवान विष्णु के अवतार श्री कृष्ण को समर्पित है। यह भारत के ओडिशा राज्य के तटवर्ती शहर पुरी में स्थित है। जगन्नाथ शब्द का अर्थ 'जगत के स्वामी' होता है। इसलिए पुरी नगरी 'जगन्नाथपुरी' कहलाती है। इस रथ यात्रा को देखने के लिए हर साल दस लाख से अधिक तीर्थयात्री आते हैं। कहा जाता है कि जो व्यक्ति इस रथ यात्रा में भाग लेता है वह जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है। उनके रथ पर भगवान जगन्नाथ की एक झलक बहुत ही शुभ मानी जाती है। इस त्योहार को ‘घोसा यात्रा’, ‘दशवतार यात्रा’, ‘नवादिना यात्रा’ या ‘गुंडिचा यात्रा’ के नाम से भी जाना जाता है।

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Story behind Jagannath Puri Rath Yatra | Reason for Jagannath Puri Rath Yatra

पुरी में भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा निकालने की परंपरा काफी पुरानी है। इस रथयात्रा से जुड़ी कई किवंदतियां भी प्रचलित हैं। उसी के अनुसार, भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा निकालने की परंपरा राजा इंद्रद्युम ने प्रारंभ की थी। यह कथा संक्षेप में इस प्रकार है-

स्कंदपुराण एवं पुरुषोत्तम महात्म्य के अनुसार सतयुग में अवंती (उज्जैन) नगरी में इन्द्रद्युम्न नामक राजा राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम गुण्डिचा था। नि:संतान होने पर भी वे इसे भगवन् कृपा मानते एवं उनके हृदय में भगवान के साक्षात्‌ दर्शन की प्रबल इच्छा थी। अपने महल के अतिथिगृह में तीर्थयात्रियों के आदर-सत्कार के दौरान उन्हें श्री विग्रह नीलमाधव के बारे में पता चला जिनके दर्शन से इस दु:खमय संसार से मुक्ति हो जाती है। यह सुनकर राजा के मन में नीलमाधव के दर्शन की तीव्र उत्कंठा जाग उठी एवं राजा इन्द्रद्युम्न ने अपने पुरोहित विद्वान पुत्र विद्यापति एवं अन्य कर्मचारियों को सेनापतियों को विभिन्न दिशाओं में जाकर श्री विग्रह नीलमाधव को ढूंढने का आदेश दिया एवं 3 माह में लौटने को कहा। 3 माह पश्चात विद्यापति को छोड़कर सभी कर्मचारी, सेनापति असफल होकर लौट आए।

उधर विद्यापति नीलमाधव के श्रीविग्रह को ढूंढने हेतु निरंतर भ्रमण करने के दौरान एक समृद्धशाली गांव के प्रधान विश्वावसु के यहां बतौर अतिथि ठहरे, जहां उनकी पुत्री ललिता ने उनकी देखभाल की एवं दोनों में प्रेम हुआ एवं विद्यापति का विवाह ललिता के साथ संपन्न हो गया। विश्वावसु प्रतिदिन बाहर से लौटते तो उनकी देह से अद्‌भुत सुगंध आती थी। विद्यापति ने इस बारे में ललिता से पूछा तो उसने कहा कि पिताजी ने यह रहस्य किसी से भी बताने से मना किया है। विद्यापति ने कहा कि पत्नी को पति से कोई बात छिपानी नहीं चाहिए तब ललिता ने बताया कि उनके पिता नीलमाधव की पूजा करने जाते हैं। विद्यापति ने भी नीलमाधव के दर्शन की अभिलाषा व्यक्त की। तब ललिता ने पिता विश्वावसु से अपने पति को साथ ले जाने की मंशा व्यक्त की एवं न ले जाने पर प्राण त्याग ने की बात कही। परंतु विश्वावसु को चिंता थी कि अनाधिकारी व्यक्ति को वहां ले जाने पर कहीं नीलमाधव अप्रकट हो गए तो मैं अपने आपको कैसे क्षमा कर पाऊंगा?

एक और पुत्री का स्नेह था तो दूसरी ओर नीलमाधव के भावी विरह की आशंका। परंतु उन्होंने पुत्री से कहा कि उसके पति को वे साथ अवश्य ले जाएंगे, परंतु उनकी आंखों पर काली पट्‌टी बांधकर एवं मंदिर पहुंचने पर ही हटाऊंगा जिससे कि वे नीलमाधव के दर्शन कर सकें एवं दर्शन के उपरांत पुन: पट्टी बांध दूंगा जिससे वे वास स्थान न जान पाएंगे।

बाद में विद्यापति एवं पत्नी ने योजना बनाई कि बाद में मैं भी उनके दर्शन अकेले जाकर कर पाऊं। विश्वावसु के साथ बैलगाड़ी में जाते वक्त सरसों की पोटली से सरसों के दाने मार्ग में गिराते गए जिससे बाद में सुंदर पुष्प वाले पौधों से मार्ग का पता लग जाएगा। मंदिर पहुंचकर देखा तो नीलमाधव ने शंख, चक्र, गदा और पद्‌म धारण कर रखे थे।

विद्यापति नीलमाधव के दर्शन कर पूर्ण रूप से संतुष्ट हो गए। इसी बीच जब विश्वावसु पुष्प व पूजन सामग्री लेने बाहर गए तो विद्यापति मंदिर के समीप एक सरोवर के पास टहलने लगे। तभी उन्होंने देखा कि पेड़ की डाली से एक कौआ सरोवर में गिर पड़ा एवं प्राण त्याग दिए एवं उसने संदर चतुर्भुज रूप धारण कर लिया। उसी क्षण गरुड़जी वहां उपस्थित हुए एवं उसे बैठाकर बैकुंठ की ओर ले चले। विद्यापति ने सोचा कि एक साधारण अपवित्र कौआ। परंतु सरोवर में गिरने मात्र से इसकी श्रेष्ठ गति हुई, अत: क्यों नहीं यहीं प्राण त्यागकर में भी बैकुंठ चला जाऊं?

तभी आकाशवाणी हई कि बैकुंठ जाने के लोभ में आत्महत्या मत करो। तुम्हें जगत के हित के लिए अनेक महत्वपूर्ण सेवाएं करनी है एवं शीघ्र महाराज इन्द्रद्युम्न के पास लौटकर उन्हें नीलमाधव के यहां होने की सूचना दो। उस रात्रि को नीलमाधव ने स्वप्न में विश्वावसु से कहा कि यद्यपि तुमने अत्यधिक, बहुत समय तक मेरी सेवा की हैं और मैं तुमसे अत्यधिक संतुष्ट भी हूं तथापि अब मैं एक प्रिय भक्त महाराज इन्द्रद्युम्न से सेवा ग्रहण करना चाहता हूं।

विश्वावसु अत्यंत विचलित होकर उनसे दूर होने की कल्पना से ही परेशान हो उठे। इधर विद्यापति ने भी अवंती नगरी जाने की बात उठाई तो विश्वावसु ने विद्यापति को अपने कक्ष में ही बंदी बना लिया, परंतु पुत्री के कहने पर मुक्त होकर वे अवंती की ओर प्रस्थान कर गए एवं महाराज को सूचित किया।

इधर महाराज इन्द्रद्युम्न, सेना, प्रजा के साथ सरसों के पौधों से निर्मित पथ के माध्यम से नीलमाधव मंदिर पहुंचे, परंतु वहां देखा कि मंदिर में नीलमाधव नहीं थे। राजा ने सोचा कि विश्वावसु ने उन्हें गांव में छिपा दिया होगा। राजा ने विश्वावसु सहित सभी शबर लोगों को बंदी बना लिया एवं निराश होकर प्राण त्यागने का प्रण लिया, साथ ही स्मरण कर नीलमाधव को पुकारने लगे। इतने में आकाशवाणी हुई कि राजन, शबर लोगों को छोड़ दो। मैं इस जगत में नीलमाधव के रूप में तुम्हें दर्शन नहीं दूंगा किंतु में जगन्नाथ, बलदेव, सुभद्रा और सुदर्शन चक्र के रूपों में प्रकट होऊंगा। तुम सभी महासागर के निकट बंकिम मुहाना (चक्रतीर्थ) के समीप प्रतीक्षा करो। मैं दारूबह्न (लकड़ी के रूप में स्वयं भगवान) के रूप में वहां सागर में आऊंगा। मैं एक विशाल सुगंधित लाल वृक्ष की लकड़ी के रूप में प्रकट होऊंगा। उस पर शंख, चक्र, गदा व पद्म‍ चिह्न होंगे। उस दारूबह्म को वहां से निकालकर तुम उससे चार विग्रह बनवाकर मंदिर में स्थापित कर पूजा-अर्चना करना।

राजा ने वहां विग्रहों की स्‍थापना हेतु विशाल मंदिर का निर्माण करवाया एवं ब्रह्माजी के हाथों प्रतिष्ठा करवाने का विचार किया। समुद्र में लाल वृक्ष का तना दिखाई देने पर उसे सैनिकों व हाथियों की सहायता से बाहर निकालने का प्रयास किया गया लेकिन असमर्थ रहे। तभी आकाशवाणी में बताया गया कि मेरे पुराने सेवक विश्वावसु, पुत्री ललिता और उनके दामाद विद्यापति को बुलाकर मुझे स्वर्ण रथ में ले जाओ। तत्पश्चात एक ओर से विश्वावसु एवं दूसरी ओर से ललिता एवं विद्यापति ने सहजता से उसे बाहर निकाला एवं स्वर्ण रथ पर रख दिया एवं ओडिशा के शिल्पकारों को आमंत्रित कर श्रीविग्रह का निर्माण करने पर धन-संपत्ति देने का वादा किया। परंतु उनके औजार तने को स्पर्श मात्र से ही छिन्न-भिन्न हो जाते। तब एक वृद्ध किंतु सुंदर महाराणा नामक ब्राह्मण (बढ़ई रूपी विश्वकर्मा) ने विग्रह निर्माण की जिम्मेवारी ली। बढ़ई रूपी विश्वकर्मा ने यह शर्त रखी कि वह मूर्ति का निर्माण एकांत में करेंगे। 21 दिनों तक इस भवन का द्वार मेरे कार्य करने तक बंद रहेगा, यदि कोई वहां आया तो वह काम अधूरा छोड़कर चले जाएंगे। उससे पूर्व द्वार खुला तो मैं कार्य अधूरा छोड़कर चला जाऊंगा।

राजा ने शर्त पालन का वचन दिया। 14 दिन बाद अंदर से कोई शब्द सुनाई नहीं देने पर राजा ने चिंतित होकर सोचा कि कहीं ब्राह्मण के बिना खाने-पीने के प्राण तो नहीं छुट गए? रानी गुण्डिचा के आग्रह पर द्वार खोल दिए गए। कक्ष में ब्राह्मण को न पाकर महाराज के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। श्री जगन्नाथ देव, श्री बलदेव, श्री सुभद्रादेवी और श्री सुदर्शन चक्र इन चारों के श्रीविग्रह भी वहां असंपूर्ण अवस्था में विद्यमान थे। उनके नेत्र और नासिकाएं गोलाकार थीं। उनकी भुजाएं आधी बनी थीं। हाथ-पैर भी अभी संपूर्ण नहीं थे।

एक अन्य घटनाक्रम के अनुसार राजा ने द्वार खोला तो अंदर ब्राह्मण मौजूद थे एवं उन्होंने कहा कि अभी तो 14 दिन हुए हैं और विग्रहों को पूर्ण करने के लिए 7 दिनों की आवश्यकता थी। संभवत: श्री जगन्नाथ देवजी की इच्छा से ही ऐसा हुआ हो, ऐसा कहकर वे अदृश्य हो गए। तब महाराज को आभास हुआ कि वे स्वयं जगन्नाथ देव ही थे।

राजा को अपने वचन तोड़ने का पश्चाताप हुआ तो वे अपना प्राण त्यागने को प्रस्तुत हुए। तभी आकाशवाणी द्वारा राजा को आदेश मिला कि चिंता मत करो, मैं स्वयं ही इसी रूप में प्रकट होना चाहता था एवं इन विग्रहों को इसी रूप में मंदिर में स्थापित करो। विद्यापति की ब्राह्मण पत्नी से उत्पन्न पुत्र मेरी पूजा करे एवं शबर पत्नी से उत्पन्न पुत्र मेरे लिए विविध प्रकार के व्यंजन बनाए। विश्वावसु के गांव में दयिता और उनके वंशज रथयात्रा के समय 10 दिनों तक मेरी सेवा करें वे दयिता ही श्री बलदेव, सुभद्रादेवी और मुझे रथों पर बिठाकर गुण्डिचा मंदिर में ले जाए। उन दिनों प्रत्येक वर्ष रथयात्रा हेरा पंचमी आदि उत्सवों का विराट आयोजन करना है।

यह समस्त लीला (अर्थात श्री जगन्नाथ, श्री बलदेव, श्री सुभद्रा और श्री सुदर्शनजी के अद्भुत रूप में आविर्भूत होने की लीला) अद्भूत रूप में रानी गुण्डिचा की प्रार्थना के परिणामस्वरूप ही प्रकाशित हुई थी। इसलिए जगन्नाथजी, बलदेवजी व सुभद्राजी रथयात्रा के समय जिस मंदिर में 1 सप्ताह तक विश्राम करते हैं, उसका नाम गुण्डिचा (रानी) के नाम पर गुण्डिचा मंदिर रखा गया। विश्वावसु के गांव के दयिता श्रीविग्रहों को मंदिर में लाकर रथों पर बिठाकर उस महोत्सव के दौरान 10 दिनों तक सेवा करते हैं। ललिता से उत्पन्न वंशज सुपकार कहलाते हैं एवं भगवान जगन्नाथ ने उन्हें भोग बनाने का दायित्व सौंपा। ये सुपकार पाक कला में दाल और अन्य व्यंजन बना लेते हैं।

तब बढ़ई रूपी विश्वकर्मा ने यह शर्त रखी कि वह मूर्ति का निर्माण एकांत में करेंगे, यदि कोई वहां आया तो वह काम अधूरा छोड़कर चले जाएंगे। राजा ने शर्त मान ली। तब विश्वकर्मा ने गुण्डिचा नामक स्थान पर मूर्ति बनाने का काम शुरू किया। एक दिन भूलवश राजा बढ़ई से मिलने पहुंच गए। उन्हें देखकर विश्वकर्मा वहां से अन्तर्धान हो गए और भगवान जगन्नाथ, बलभद्र व सुभद्रा की मूर्तियां अधूरी रह गईं। तभी आकाशवाणी हुई कि भगवान इसी रूप में स्थापित होना चाहते हैं। तब राजा इंद्रद्युम ने विशाल मंदिर बनवा कर तीनों मूर्तियों को वहां स्थापित कर दिया।

भगवान जगन्नाथ ने ही राजा इंद्रद्युम को दर्शन देकर कहा कि वे साल में एक बार अपनी जन्मभूमि अवश्य जाएंगे। स्कंदपुराण के उत्कल खंड के अनुसार, इंद्रद्युम ने आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को प्रभु को उनकी जन्मभूमि जाने की व्यवस्था की। तभी से यह परंपरा रथयात्रा के रूप में चली आ रही है।

interesting facts about jagannath rath yatra

  • इस मंदिर का वार्षिक रथ यात्रा उत्सव पूरी दुनिया में मशहूर है, हर साल आषाढ़ माह की शुक्लपक्ष की द्वितीया तिथि को रथयात्रा आरम्भ होती है और शुक्ल पक्ष के 11 वें दिन समाप्त होती है। ढोल, नगाड़ों, तुरही और शंखध्वनि के बीच भक्तगण इन रथों को खींचते हैं।
  • पुरी स्थित भगवान जगन्नाथ मंदिर भारत के चार पवित्र धामों में से एक है। ये मंदिर 800 वर्ष से अधिक प्राचीन है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण, जगन्नाथ रूप में विराजित है।
  • धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इस रथ यात्रा भगवान जगन्‍नाथ जी के मंदिर से निकालकर प्रसिद्ध गुंडिचा माता के मन्दिर तक पहुंचाया जाता है। जहां पर भगवान जगन्‍नाथ जी सात दिनों तक विश्राम करते हैं। सात दिनों तक विश्राम करके के बाद में मंदिर में वापीस आ जाते हैं।
  • इन रथों के निर्माण में किसी भी प्रकार के नुकीली वस्तु का प्रयोग नहीं होता। ये रथ नीम की पवित्र और परिपक्व लकड़ियों से बनाए जाते हैं। रथों के लिए लड़कियों का चयन बसंत पंचमी के दिन से शुरू होता है और उनका निर्माण अक्षय तृतीया से प्रारम्भ होता है।
  • जब ये तीनों रथ तैयार हो जाते हैं, तब 'छर पहनरा' नामक अनुष्ठान संपन्न किया जाता है। इसके तहत पुरी के गजपति राजा पालकी में यहां आते हैं और इन तीनों रथों की विधिवत पूजा करते हैं और सोने की झाड़ू से रथ मंडप और रास्ते को साफ़ करते हैं।
  • जगन्नाथ मंदिर से रथयात्रा पुरी नगर से शुरू होकर गुजरते हुए गुंडीचा मंदिर पहुंचती है। यहां भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और देवी सुभद्रा सात दिनों के लिए विश्राम करते हैं। गुंडीचा मंदिर (गुंडीचा बाड़ी) में भगवान जगन्नाथ के दर्शन को आड़प-दर्शन कहा जाता है। ये भगवान की मौसी का घर है।
  • कहते हैं कि रथयात्रा के तीसरे दिन यानी पंचमी तिथि को देवी लक्ष्मी, भगवान जगन्नाथ को ढूंढते हुए यहां आती हैं। तब द्वैतापति दरवाज़ा बंद कर देते हैं, जिससे देवी लक्ष्मी रुष्ट होकर रथ का पहिया तोड़ देती है और हेरा गोहिरी साही पुरी नामक एक मुहल्ले में, जहां देवी लक्ष्मी का मंदिर है, वहां लौट जाती हैं। बाद में भगवान जगन्नाथ रूठी हुई देवी लक्ष्मी को मनाते हैं।
  • आषाढ़ महीने के दसवें दिन सभी रथ फिर से मुख्य मंदिर की ओर प्रस्थान करते हैं। रथों की वापसी की इस यात्रा की रस्म को बहुड़ा यात्रा कहते हैं। जगन्नाथ मंदिर वापस पहुंचने के बाद भी सभी प्रतिमाएं रथ में ही रहती हैं। देवी-देवताओं के लिए मंदिर के द्वार अगले दिन एकादशी को खोले जाते हैं, तब विधिवत स्नान करवा कर वैदिक मंत्रोच्चार के बीच देव विग्रहों को पुनः प्रतिष्ठित किया जाता है।
  • आप कभी भी किसी पक्षी या विमानों को मंदिर के ऊपर उड़ते हुए नहीं पायेगें। इसके अलावा मंदिर के मुख्य गुंबद की छाया दिन के किसी भी समय अदृश्य है। मंदिर के अंदर पकाने के लिए भोजन की मात्रा पूरे वर्ष के लिए रहती है। प्रसाद की एक भी मात्रा कभी भी व्यर्थ नहीं जाएगी, चाहे तो कुछ हजार लोगों से 20 लाख लोगों को खिला सकते हैं।
  • मंदिर में रसोई (प्रसाद)पकाने के लिए 7 बर्तन एक दूसरे पर रखा जाता है और लकड़ी पर पकाया जाता है. इस प्रक्रिया में शीर्ष बर्तन में सामग्री पहले पकती है फिर क्रमश: नीचे की तरफ एक के बाद एक पकते जाती है।
  • मन्दिर के सिंहद्वार में पहला कदम प्रवेश करने पर (मंदिर के अंदर से) आप सागर द्वारा निर्मित किसी भी ध्वनि नहीं सुन सकते. आप (मंदिर के बाहर से) एक ही कदम को पार करें जब आप इसे सुन सकते हैं. इस अदभुत चमत्कार को शाम को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
  • Information about Jagannath, Balaram Subhadra Rath with Paint

  • बलरामजी के रथ को 'तालध्वज' कहते हैं, जिसका रंग लाल और हरा होता है। रथ पर महादेवजी का प्रतीक होता है। इसके रक्षक वासुदेव और सारथी मातलि हैं। रथ के ध्वज को उनानी कहते हैं। इस रथ में 14 पहिए लगे होते हैं।
  • देवी सुभद्रा के रथ को 'दर्पदलन' या 'पद्म रथ' कहा जाता है, जो काले या नीले और लाल रंग का होता है। रथ पर देवी दुर्गा का प्रतीक मढ़ा जाता है। इसकी रक्षक जयदुर्गा व सारथी अर्जुन हैं। रथ का ध्वज नदंबिक कहलाता है। इस रथ में 12 पहिए लगे होते हैं।
  • भगवान जगन्नाथ के रथ को 'नंदीघोष' या 'गरुड़ध्वज' कहते हैं। इसका रंग लाल और पीला होता है। भगवान जगन्नाथ के रथ में 16 पहिए लगे होते हैं।
  • गौरतलब है कि रथयात्रा में सबसे आगे बलरामजी का रथ, उसके बाद बीच में देवी सुभद्रा का रथ और सबसे पीछे भगवान जगन्नाथ श्रीकृष्ण का रथ होता है। तीनों के रथ को खींचकर मौसी के घर यानी कि गुंडीचा मंदिर लाया जाता है जो कि जगन्नाथ मंदिर से करीब तीन किलोमीटर दूर है।

    Significance of Jagannath Puri Rath Yatra

    ओड़िसा प्रान्त के जगन्नाथ पुरी में आयोजित होनेवाली जगन्नाथ रथ यात्रा यह विश्व इतिहास की प्राचीनतम रथ यात्रा है। जगन्नाथ रथ यात्रा विश्व को गीता का सन्देश देने वाले, भारत के महानायक श्रीकृष्ण के प्रति जगन्नाथ के रूप में आदर प्रगट करने की महान परंपरा है। रथ यात्रा का उल्लेख ब्रह्म पुराण, पद्म पुराण, स्कन्ध पुराण तथा कपिला संहिता में भी मिलता है। इस रथयात्रा का पुण्य 100 यज्ञों के बराबर होता है। इस रथ यात्रा में शामिल होने से व्यक्ति के जीवन से सभी प्रकार के कष्ट दूर हो जाते हैं।

    हजारों वर्षों से चली आ रही यह परंपरा सामाजिक समरसता का अद्भुत उदाहरण है। लाखों की संख्या में आनेवाला जन सैलाब जाति पंथ उंच-नीच के भेद भाव को भूल कर जगन्नाथ का रथ खीचने हेतु एकता का डोर थामने के लिए आतुर रहता है। यही भारत की शक्ति है। अनंत कंठों से सारा भारत महाभारत के महानायक की जय जय कार करते हुए साथ साथ चले यही रथ यात्रा का दर्शन है। जगदीश्वर का दर्शन है। आप सभी को जगन्नाथ रथ यात्रा की हार्दिक शुभकामनाएं।